आकर्षक ब्लॉग ग्रह, उपग्रह, और ब्रह्माण्ड विज्ञान के बारे में तक्षशिला और नालंदा विश्व विद्यालयों को अग्नि की भेंट कर वो कहते हैं तुम अज्ञानी होपश्चिम की शिक्षा को ही कल्याण का मार्ग समझाया जाता हैसत्य हम जानते हैंहमें यह नहीं, विश्व गुरु की शिक्षा चाहिए- तिलक संपादक युगदर्पण. 9911111611, 9999777358.

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: : : क्या आप मानते हैं कि अपराध का महिमामंडन करते अश्लील, नकारात्मक 40 पृष्ठ के रद्दी समाचार; जिन्हे शीर्षक देख रद्दी में डाला जाता है। हमारी सोच, पठनीयता, चरित्र, चिंतन सहित भविष्य को नकारात्मकता देते हैं। फिर उसे केवल इसलिए लिया जाये, कि 40 पृष्ठ की रद्दी से क्रय मूल्य निकल आयेगा ? कभी इसका विचार किया है कि यह सब इस देश या हमारा अपना भविष्य रद्दी करता है? इसका एक ही विकल्प -सार्थक, सटीक, सुघड़, सुस्पष्ट व सकारात्मक राष्ट्रवादी मीडिया, YDMS, आइयें, इस के लिये संकल्प लें: शर्मनिरपेक्ष मैकालेवादी बिकाऊ मीडिया द्वारा समाज को भटकने से रोकें; जागते रहो, जगाते रहो।।: : नकारात्मक मीडिया के सकारात्मक विकल्प का सार्थक संकल्प - (विविध विषयों के 28 ब्लाग, 5 चेनल व अन्य सूत्र) की एक वैश्विक पहचान है। आप चाहें तो आप भी बन सकते हैं, इसके समर्थक, योगदानकर्ता, प्रचारक,Be a member -Supporter, contributor, promotional Team, युगदर्पण मीडिया समूह संपादक - तिलक.धन्यवाद YDMS. 9911111611: :

Monday, January 17, 2011

शिक्षा का माध्यम : अंग्रेजी या मातृभाषा ----------------------------------------------- विश्वमोहन तिवारी . एयर वाइस मार्शल . से .नि .

हमें यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए!.आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

जब विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी पश्चिम से आई हैं, और हमारी भाषाओं ने विप्रौद्योगिकी के विकास में कार्य नहीं किया तब हम अपनी भाषा में विज्ञान कैसे सीख सकते हैंॐ उसे तो अंग्रेजी के द्वारा ही सीखना पड़ेगा।इस पर थोड़ा गहराई से विचार करें।

शिक्षा के माध्यम के विषय में आम आदमी की क्या सोच है ? आम आदमी कहता है कि शिक्षा का माध्यम वह हो जिसमें अच्छी शिक्षा मिले, जो जीवन में काम आएऌ और हम देख ही रहे हैं कि अंग्रेजी माध्यम वाले कॉन्वैन्ट और पब्लिक स्कूलों में ही अच्छी पढ़ाई हो रही है।बिना अंग्रेजी के कोई भी अच्छी नौकरी नहीं मिलती। इसलिये एक तरफ, हम तो मजबूर हैं।फिर दूसरी तरफ, अंग्रेजी तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, कम्प्यूटर की भाषा है, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तो हिन्दी में पुस्तकें ही नहीं हैं।और ऐसे में कुछ सिरफिरे आदर्शवादी लोग ही हैं जो जीवन मूल्यों की दुहाई देते हुए मातृभाषा को अपनाने की बात करते हैं ॐ वह आगे कहता है कि आखिर हमें स्वयं को जीवन मूल्य सिखाना ही पड़ते हैं, चाहे जिस भाषा में सीख लें।आखिर भाषा विचारों के आदान प्रदान का माध्यम ही तो है ! पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनके सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें!!

प््रामुख बात तो यह कि जनतंत्र में जनता की यह मजबूरी कैसी ॐ क्या जनतंत्र काम नहीं कर रहा है ? जब एक विदेशी भाषा में राजकाज हो तब जनता का राज्य तो हो ही नहीं सकताÊ क्योंकि उसे तो पता ही नहीं कि संसद में या सरकारी दफ्तरों में क्या हो रहा है।अतः भाषा संबन्धी सरकारी नीति को, सरकारी स्कूलों को सुधारना अत्यावश्यक है, अपने अधिकारों के लिये आन्दोलन की आवश्यकता है।आन्दोलन करने के लिये भ्रमों का निवारण भी जरूरी है, और अंग्रेजी माध्यम से होने वाले खतरे से सावधान करना भी। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या हो? तैत्तिरीय उपनिषद तथा अन्य शास्त्रों में शिक्षा का प्रथम उद्देश्य शिशु को मानव बनाना है, दूसरा, उसे उत्तम नागरिक़ तथा तीसरे, परिवार का पालन पोषण करने योग्य और साथ ही सुख की प्राप्ति कराना। हमारी संस्कृति में तो जीवन के चार पुरुषार्थ , धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के आधार में यह उद्देश्य हैं।क्या प्रचलित शिक्षा के उद्देश्य यह हैं? एक तरफ व्यवसाय या नौकरी ही शिक्षा का उद्देश्य रह गया है , और दूसरी तरफ शिक्षा जैसे पुण्य कार्य का घोर व्यवसायी करण या बाजारीकरण हो रहा है।

अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा से हमें पाश्चात्य जीवन मूल्य और भोगवादी सभ्यता ही मिलेगी क्योंकि भाषा अपने साथ अपनी संस्कृति लाती है।और हमारा दुर्भाग्य कि अंग्रेजी भक्त यही चाहते हैं।भोगवादियों की सफलता आप उनके भोग के संसाधनों से ही तो नाप रहे हैं सुख से तो नहीं! भोगवादी सभ्यता में परिवार तथा समाज विखंडित हो रहा हैऌ नारी स्वयं बाजारू हो रही है। दूरदर्शन इत्यादि माध्यम इस भोगवाद की अग्नि को भड़का रहे हैं।पाश्चात्य संस्कृति की गुलामी सुख नहीं, सुख का भ्रम देती है।भारतीय संस्कृति सच्चा सुख दे सकती है क्योंकि उसमें त्याग­पूर्वक भोग का मंत्र है जो हम खो रहे हैं क्योंकि अपनी संस्कृति की वाहन अपनी मातृभाषा को भूल रहे हैं। नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, इसलिये हम भारतीय जीवन मूल्यों को भूल रहे हैं, और घोर अमानवीयता भुगत रहे हैं। ‘स्टॉक होम सिन्ड्रोम’ के अनुसार गुलामियत की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। ब्राउन साहब कहते हैं कि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार युग में रहते।हमें अंग्रेजी चाहिये।यह तो ठीक है कि यदि अंग्रेजी ने फारसी को न हटाया होता तब हम भी अन्य मुस्लिम देशों की तरह आधुनिकता से वंचित रहतेÊ और साथ ही मानसिक तथा भौतिक रूप से उनसे अधिक दरिद्र रहतेÊ क्योंकि हमारे पास तो आवश्यक मात्रा में तेल भी नहीं है।अतएव 1947 तक तो अंग्रेजी ठीक ही थीÊ किन्तु उसके बाद हमें भारतीय भाषाओं को ही अपनाना था क्योंकि हमारी समृद्ध भाषाओं में विज्ञान­ संप्रेषण करने की भी आवश्यक शक्ति है।पहले तो कॉन्वैन्टी स्कूलों में ही भारतीय भाषाओं काÊ प्रच्छन्न रूप से तिरस्कार होता ही था, अब तो पब्लिक स्कूलों में भी मातृभाषाओं का तिरस्कार डंके की चोट पर होता है, भारतीय संस्कृति का तिरस्कार होता है।यह कैसा भारतवर्ष हैॐॐ

वैश्वीकरण के कारण अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ा है और प्रवासियों का बड़ी संख्या में विदेशों में निवास भी। इस के शिक्षा पर हो रहे परिणामों पर जो शोध कैनैडा में हुए हैं वे उपयोगी हैं, यद्यपि उनकी समस्या हमारी समस्या से उलट है।टौरॉन्टो शहर के किन्डरगार्टन में पढ़ रहे विद्याार्थियों में 58 त् बच्चे ऐसे देशों से आए हैं जहां की आम भाषा अंग्रेजी नहीं है।वहां .अर्थात कैनैडा के फाशिस्ट लोग प्रवासियों को देश से ही निकालना चाहते हैं।और कुछ उन्हें मुख्यधारा में समाहित करने के लिये प्रवासी विद्याथियों को मात्र अंग्रेजी में ही शिक्षा देते हैं।

इस समस्या पर डा . कमिन्सÊ बेकर तथा स्कुटनाबकंगस ने अनुसंधान कियाऌ उन्होने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे महत्वपूर्ण हैं :

1 . अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के तहत बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा न देना मानवाधिकारों का हनन है।

2 . द्विभाषी बच्चों की मातृभाषा उनके समग्र विकास तथा शैक्षिक विकास के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है।

3 . जब बच्चे दोनों भाषाओं में विकास करते रहते हैं, उन्हें भाषाओं तथा उनके उपयोग की गहरी समझ हो जाती है।

4 . द्विभाषी बच्चों की विचार पद्धति अधिक नमनीय हो सकती है, तथा उनके भाषाओं के उपयोग की समझ गहरी हो जाती है।

5 . जो बच्चे अपनी मातृभाषा में ठोस आधार लेकर आते हैं, वे शाला की भाषा में बेहतर योग्यता प्राप्त करते हैं।बच्चों के माता पिता, दादा दादी, नाना नानी आदि बच्चों से संवाद करते हैं, कहानियां सुनाते हैं, तब बच्चे अधिक सफलतापूर्वक अन्य भाषा तथा शिक्षा ग्रहण करते हैं।क्योंकि जो भी बच्चों ने घर में सीखा है वह ज्ञान, वे अवधारणाएं तथा कौशल अन्य भाषा में सरलतापूर्वक आ जाते हैंैं। यदि बच्चों ने घर में घड़ी देखना सीख लिया है तब उन्होने समय बतलाना और समझना भी सीख लिया है, अतएव उसे अन्य भाषा में वह अवधारणा सीखने में बहुत कम समय लगेगा।इसी तरह बच्चे जो भीे शाला की भाषा में सीखते हैं वह मातृभाषा मैं तैर जाता है, बशत्र्ते कि मातृभाषा का तिरस्कार न किया गया हो।अर्थात मातृभाषा के उपयोग को शाला में रोकना बच्चे के विकास में सहायक नहीं होता, वरन अवरुद्ध करता है।जब शाला में उन्हें मातृभाषा में भी प्रभावी शिक्षा दी जाती है तब द्विभाषी बच्चे शाला में बेहतर शिक्षा प्राप्त करते हैं इसके विलोम स्वरूप, जब शाला में बच्चों की मातृभाषा का तिरस्कार होता है तब उनका विकास अवरुद्ध होता है, और उनकी व्यक्तिगत शिक्षा की तथा शिक्षण हेतु अत्यावश्यक अवधारणाओं की आधारशिला कमजोर होती है।

6 . शाला में किसी भी बच्चे की मातृभाषा को ठुकराना, उस बच्चे को ठुकराना है ॐ जब बच्चे को यह संदेश दिया जाता है कि वह अपनी भाषा और उसके साथ अपनी संस्कृति शाला के बाहर छोड़कर आए तब वे अपनी अस्मिता का अपने संस्कारों का कुछ हिस्सा भी बाहर छोड़ आते हैं।यह भी पर्याप्त नहीं है कि शिक्षक बच्चे की भाषा को निष्क्रिय रूप से स्वीकारें, वरन उन्हें विभिन्न विधियों द्वारा उनकी भाषा की पुष्टि ही करना चाहिये, तथा सामान्य तौर पर ऐसा शैक्षिक वातावरण तैय्यार करना चाहिये कि पूर्ण बालक का भाषाई तथा सांस्कृतिक अनुभव स्वीकार्य है।शाला के अधिकारियों तथा शिक्षकों को यह समझना आवश्यक है कि घर में प्राप्त बच्चे के भाषाई तथा सांस्कृतिक अनुभव वे महत्वपूर्ण आधार हैं जिन पर भविष्य की शिक्षा के स्तम्भ का निर्माण होना है।

इसमें संदेह नहीं कि शिक्षा का पूरा लाभ लेने के लिये मातृभाषा में शिक्षा का दिया जाना तथा मातृभाषा का सम्मान करना नितांत आवश्यक है।विदेश में हमारी भाषा का सम्मान हो रहा है और हम इतने गुलाम कि अपने देश में अपनी मातृभषा का तिरस्कार कर रहे हैं, और बच्चों का और देश का भविष्य खराब कर रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखना चाहिये, अवश्य सीखना चाहिये। हम अंग्रेजी को एक समुÙत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह सीखें।भारत में जो शिक्षा प्राथमिक स्तर से, और महानगरों में तो नर्सरी से, अंग्रेजी माध्यम में दी जा रही है वह भारत के लिये धीमे जहर के समान है। नर्सरी या पहली कक्षा से ही अंग्रेजी शुरु करने पर अंग्रेजी सीखने में न केवल अधिक कठिनाई होगीÊ वरन उस भाषा का सीखना रटंत विद्या के समान होगा और वह ज्ञान उसके हृदय में प्रवेश नहीं कर सकेगा।असली भाषा अर्थात हृदय तक पहुँचने वाली भाषा जीवन जीने वाली भाषा से आती हैÊ जो उसकी मातृभाषा है या उसके क्षेत्र की भाषा है। क्योंकि बच्चा मातृभाषा में सीखे ज्ञान तथा कौशल को अन्य भाषा में सरलता से ढाल लेता है, अतएव अंग्रेजी की शिक्षा को मातृभाषा की शिक्षा से चार कदम पीछे रहना चाहिये। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिये। अंग्रेजी भाषा का शिक्षण माध्यमिक स्तर से प्रारंभ करना चाहिये। कुछ विद्यार्थियों को शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी जा सकती है जोकि बारहवीं कक्षा के बाद ही प्रारंभ करना चाहिये ताकि मातृभाषा की पर्याप्त निर्मिति तथा संस्कृति मस्तिष्क तथा हृदय में समुचित रूप से बैठ जाए।

भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, शेष देश मात्र खुले बाजार होंगे ! विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त होने के लिये उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं, जिसके लिये विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार, तथा कल्पनाशीलता तथा सृजनशीलता आवश्यक हैं। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे संवेदनशील तथा अंतर्प्रज्ञा ह्यएम्ेतेिनल् ान्द न्तिुतेिन्हृ गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ तथा गहरे ज्ञान अर्थात मात्र याद किया हुआ नहीं वरन आत्मसात किये ज्ञान के साथ आते हैं, और जिस भाषा में जीवन जिया जाता ह,ै उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैंऌ अतएव उसी भाषा में आविष्कार आदि हो सकते हैं। इसलिये नौकरी के लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वाले से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, आखिर इज़राएल जो कि हमारे देश का दसवां हिस्सा भी नहीं है, विज्ञान में हमसे दस गुने नोबेल पुरस्कार ले जाता है।वह भी तब कि जब यहूदी भाषा 1948 के पहले किसी भी देश की भाषा नहीं थी !

यदि हम चाहते हैं कि इस देश का और हमारे बच्चों का इस देश में, तथा में विश्व में सम्मान बढ़े तब हमें, अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में ही देना है।यह भी एक भ्रम है कि भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा नहीं दी जा सकती।इस समय हिन्दी में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के 5 लाख से अधिक शब्द बन चुके हैं, और बनते जा रहे हैं।संस्कृत जैसी विश्व में समृद्धतम भाषा की पुत्रियों को और तमिल को भी वैज्ञानिक शब्दाावली की कोई कठिनाई नहीं हो सकती।बस राजनैतिक तथा ‘ब्यूरोक्रैटिक’ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। अब हिन्दी में केन्द्रीय सेवाओं आदि की परीक्षाएं दी जा सकती हैं।यह भी एक भम है कि अंग्रेजी गई तो देश विखंडित हो जाएगा।भारतीय संस्कृति इस देश को एकता प्रदान करती है, सभी भारतीय भाषाओं में वही संस्कृति है।एक भारतीय भाषा के जानने वाले को अन्य भारतीय भाषा सीखने में विदेशी भाषाओं को सीखने की अपेक्षा कहीं अधिक सरलता होगी।भाषाओं के सीखने के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति की योग्यताएं भिन्न क्षेत्रों में भिन्न होती हैंÊ कोई गणित सरलता पूर्वक सीख लेता है तो कोई भाषाÊ और कोई विज्ञानÊ तो कोई कलाÊ बस मातृभाषा का ज्ञान ही आवश्यक होता है।अंग्रेजी को अेिनवार्य­ सा बना देने से वह बालक जो विदेशी भाषा सीखने में निपुण नहीं है किन्तु गणित या विज्ञान या कला या अर्थशास्त्र या इतिहास आदि सीखने में निपुण हो सकता हैÊ उसकी शिक्षा अंग्रेजी में कमजोर होने से अधूरी सी रह जाएगी !

वैसे भी यदि बच्चे में कल्पना शीलता तथा सृजन शक्ति है तब वह न केवल अच्छी अंग्रेजी सीख लेगा वरन जीवन में अवश्य कुछ ऐसा भी करेगा जिससे हमें गर्व महसूस होगाÊ और हमारे साथ हमारा समाज भी सुखी होगा! इस कथन की पुष्टि का सबसे अच्छा उदाहरण तो सुभाष चंद्र बोस का है।उनके पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम की शाला में भरती करवाया था।कुछ ही दिनों में सुभाष ने स्वयं ही अपना प्रवेश बांग्ला भाषा के माध्यम वाली शाला में करवा लिया। यह बांग्ला भाषा में शिक्षित सुभाष न केवल आई सी एस की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ वरन एक अनोखा क्रान्तिकारी भी बना। और मानव तभी श्रेष्ठ बन सकता है जब वह अपनी संस्कृति तथा भाषा में जीवन जीता है। मातृभाषा तथा भारतीय संस्कृति ही हमें सुखी मानव बना सकती है।

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