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Monday, January 24, 2011

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जीवन

  • नेता जी सुभाष के जन्म दिवस पर  उन्हें शत शंत नमन ...!! व सभी को हार्दिक शुभ कामनाएं ! 
    1931 में कांग अध्यक्ष बने नेताजी, गाँधी का नेहरु प्रेम आड़े न आता; 
    तो देश का बंटवारा न होता, कश्मीर समस्या न होती, भ्रष्टाचार न होता, 
    देश समस्याओं का भंडार नहीं, विपुल सम्पदा का भंडार होता
    (स्विस में नहीं)
    -- तिलक संपादक युग दर्पण
  • नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बांग्ला: সুভাষ চন্দ্র বসু शुभाष चॉन्द्रो बोशु) (23 जनवरी 1897 - 18 अगस्त1945 विवादित) जो नेताजी नाम से भी जाने जाते हैं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय, अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ने के लिये, उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द  का नारा, भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया हैं।
    1944 में अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर से बात करते हुए, महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त  कहा था। नेताजी का योगदान और प्रभाव इतना बडा था कि कहा जाता हैं कि यदि उस समय नेताजी भारत में उपस्थित रहते, तो शायद भारत एक संघ राष्ट्र बना रहता और भारत का विभाजन न होता। स्वयं गाँधीजी ने इस बात को स्वीकार किया था। 
    [अनुक्रम 1 जन्म और कौटुंबिक जीवन2 स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य3 कारावास4 यूरोप प्रवास5 हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षप6 कांग्रेस के अध्यक्षपद से इस्तीफा7 फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना8 नजरकैद से पलायन9 नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात10 पूर्व एशिया में अभियान11 लापता होना और मृत्यु की खबर 11.1 टिप्पणी12 सन्दर्भ13 बाहरी कड़ियाँ,] 
    जन्म और कौटुंबिक जीवन
    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। कटक शहर के प्रसिद्द वकील जानकीनाथ बोस व कोलकाता के एक कुलीन दत्त परिवार से  प्रभावती की 6 बेटियाँ और 8 बेटे कुल मिलाकर 14 संतानें थी। जानकीनाथ बोस पहले सरकारी वकील बाद में निजी तथा  कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया व बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। सुभाषचंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे।। 
     स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य
    कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी, देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर, सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से भारत वापस आने पर वे सर्वप्रथम मुम्बई गये और मणिभवन में 20 जुलाई1921 को महात्मा गाँधी से मिले। कोलकाता जाकर दासबाबू से मिले उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। दासबाबू उन दिनों अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए।  1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए,कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता। स्वयं दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए। उन्होंने सुभाषबाबू को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया। सुभाषबाबू ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का ढंग ही बदल डाला। कोलकाता के रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिए गए। स्वतंत्रता संग्राम में प्राण न्यौछावर करनेवालों के परिवार के सदस्यों को महापालिका में नौकरी मिलने लगी।
    बहुत जल्द ही, सुभाषबाबू देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए। पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाषबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की इंडिपेंडन्स लिग शुरू की। 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए। कोलकाता में सुभाषबाबू ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को उत्तर देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा। पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाषबाबू उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाषबाबू ने खाकी गणवेश धारण करके पंडित मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गाँधीजी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे। इस अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से डोमिनियन स्टेटस माँगने की ठान ली थी। किन्तु  सुभाषबाबू और पंडित जवाहरलाल नेहरू को पूर्ण स्वराजकी मांग से पीछे हटना स्वीकार नहीं था। अंत में यह तय किया गया कि अंग्रेज़ सरकार को डोमिनियन स्टेटस देने के लिए, 1 वर्ष का समय दिया जाए। यदि 1 वर्ष में अंग्रेज़ सरकार ने यह मॉंग पूरी नहीं की, तो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग करेगी। अंग्रेज़ सरकार ने यह मांग पूरी नहीं की। इसलिए 1930 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन जब लाहौर में हुआ, तब निश्चित किया गया कि 26 जनवरी का दिन स्वतंत्रता दिन के रूप में मनाया जाएगा।
    26 जनवरी1931 के दिन कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर सुभाषबाबू एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व कर रहे थे। तब पुलिस ने उनपर लाठी चलायी और उन्हे घायल कर दिया। जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। किन्तु अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से माना कर दिया। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। किन्तु गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी ने सरकार से बात की। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के नीतिओं से बहुत    रुष्ट हो गए। 
     कारावास
    १९३९ में बोस का आल इण्डिया कॉन्ग्रेस सभा में आगमन छाया सौजन्य:टोनी मित्रा
    अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाषबाबू को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 1921में 6 माह का कारावास हुआ।
    1925 में गोपिनाथ साहा नामक एक क्रांतिकारी कोलकाता के पुलिस अधिक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने भूल से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फॉंसी की सजा दी गयी। गोपिनाथ को फॉंसी होने के बाद सुभाषबाबू जोर से रोये। उन्होने गोपिनाथ का शव मॉंगकर उसका अंतिम  संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष किया कि सुभाषबाबू ज्वलंत क्रांतिकारकों से न केवल ही संबंध रखते हैं, बल्कि वे ही उन क्रांतिकारकों का स्फूर्तीस्थान हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाषबाबू को गिरफतार किया और बिना कोई मुकदमा चलाए, उन्हें अनिश्चित कालखंड के लिए म्यानमार के मंडाले कारागृह में बंदी बनाया।
    5 नवंबर1925 के दिन, देशबंधू चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसें। सुभाषबाबू ने उनकी मृत्यू की सूचना मंडाले कारागृह में रेडियो पर सुनी।
    मंडाले कारागृह में रहते समय सुभाषबाबू का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। उन्हें तपेदिक हो गया। परंतू अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से मना कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी की वे चिकित्सा के लिए यूरोप चले जाए। किन्तु सरकार ने यह तो स्पष्ट नहीं किया था कि चिकित्सा के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाषबाबू ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। अन्त में परिस्थिती इतनी कठिन हो गयी की शायद वे कारावास में ही मर जायेंगे। अंग्रेज़ सरकार यह खतरा भी नहीं उठाना चाहती थी, कि सुभाषबाबू की कारागृह में मृत्यू हो जाए। इसलिए सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। फिर सुभाषबाबू चिकित्सा के लिए डलहौजी चले गए।
    1930 में सुभाषबाबू कारावास में थे। तब उन्हे कोलकाता के महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हे रिहा करने पर बाध्य हो गयी।
    1932 में सुभाषबाबू को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हे अलमोडा जेल में रखा गया। अलमोडा जेल में उनका स्वास्थ्य फिर से बिगड़  गया। वैद्यकीय सलाह पर सुभाषबाबू इस बार चिकित्सा हेतु यूरोप जाने को सहमत हो गए।
     यूरोप प्रवास
    1933 से 1936 तक सुभाषबाबू यूरोप में रहे।
    यूरोप में सुभाषबाबू ने अपने स्वस्थ का ध्यान रखते समय, अपना कार्य जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वॅलेरा सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
    जब सुभाषबाबू यूरोप में थे, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाषबाबू ने वहाँ जाकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सांत्वना दिया।
    बाद में सुभाषबाबू यूरोप में विठ्ठल भाई पटेल से मिले। विठ्ठल भाई पटेल के साथ सुभाषबाबू ने पटेल-बोस विश्लेषण प्रसिद्ध किया, जिस में उन दोनों ने गाँधीजी के नेतृत्व की बहुत गहरी निंदा की। बाद में विठ्ठल भाई पटेल बीमार पड गए, तब सुभाषबाबू ने उनकी बहुत सेवा की। किन्तु विठ्ठल भाई पटेल का निधन हो गया।
    विठ्ठल भाई पटेल ने अपनी वसीयत में अपनी करोडों की संपत्ती सुभाषबाबू के नाम कर दी। किन्तु उनके निधन के पश्चात, उनके भाई सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इस वसीयत को स्वीकार नहीं किया और उसपर अदालत में मुकदमा चलाया। यह मुकदमा जितकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वह संपत्ती, गाँधीजी के हरिजन सेवा कार्य को भेट दे दी।
    1934 में सुभाषबाबू को उनके पिता मृत्त्यूशय्या पर होने की सूचना मिली। इसलिए वे हवाई जहाज से कराची होकर कोलकाता लौटे। कराची में उन्हे पता चला की उनके पिता की मृत्त्यू हो चुकी थी। कोलकाता पहुँचते ही, अंग्रेज सरकार ने उन्हे बंदी बना दिया और कई दिन जेल में रखकर, वापस यूरोप भेज दिया।
     हरीपुरा कांग्रेस का अध्यक्षपद
    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी के साथ हरिपुरा मे सन 1938
    1938 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हरिपुरा में होने का तय हुआ था। इस अधिवेशन से पहले गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना। यह कांग्रेस का 51वा अधिवेशन था। इसलिए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाषबाबू का स्वागत 51 बैलों ने खींचे हुए रथ में किया गया।
    इस अधिवेशन में सुभाषबाबू का अध्यक्षीय भाषण बहुत ही प्रभावी हुआ। किसी भी भारतीय राजकीय व्यक्ती ने शायद ही इतना प्रभावी भाषण कभी दिया हो।
    अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में सुभाषबाबू ने योजना आयोग की स्थापना की। पंडित जवाहरलाल नेहरू इस के अध्यक्ष थे। सुभाषबाबू ने बेंगलोर में विख्यात वैज्ञानिक सर विश्वेश्वरैय्या की अध्यक्षता में एक विज्ञान परिषद भी ली।
    1937 में जापान ने चीन पर आक्रमण किया। सुभाषबाबू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने चिनी जनता की सहायता के लिए, डॉ द्वारकानाथ कोटणीस के नेतृत्व में वैद्यकीय पथक भेजने का निर्णय लिया। आगे चलकर जब सुभाषबाबू ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जापान से सहयोग किया, तब कई लोग उन्हे जापान के हस्तक और फासिस्ट कहने लगे। किन्तु इस घटना से यह सिद्ध होता हैं कि सुभाषबाबू न तो जापान के हस्तक थे, न ही वे फासिस्ट विचारधारा से सहमत थे।
     कांग्रेस के अध्यक्षपद से त्यागपत्र
    1938 में गाँधीजी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाषबाबू को चुना तो था, किन्तु गाँधीजी को सुभाषबाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी बीच युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए थे। सुभाषबाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर, भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र किया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद की कार्यकाल में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधीजी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।
    1939 में जब नया कांग्रेस अध्यक्ष चुनने का वक्त आया, तब सुभाषबाबू चाहते थे कि कोई ऐसी व्यक्ती अध्यक्ष बन जाए, जो इस मामले में किसी दबाव के सामने न झुके। ऐसी कोई दुसरी व्यक्ती सामने न आने पर, सुभाषबाबू ने खुद कांग्रेस अध्यक्ष बने रहना चाहा। किन्तु गाँधीजी अब उन्हे अध्यक्षपद से हटाना चाहते थे। गाँधीजीने अध्यक्षपद के लिए पट्टाभी सितारमैय्या को चुना। कविवर्य रविंद्रनाथ ठाकूर ने गाँधीजी को पत्र लिखकर सुभाषबाबू को ही अध्यक्ष बनाने की विनंती की। प्रफुल्लचंद्र राय और मेघनाद सहा जैसे वैज्ञानिक भी सुभाषबाबू को फिर से अध्यक्ष के रूप में देखना चाहतें थे। किन्तु गाँधीजी ने इस मामले में किसी की बात नहीं मानी। कोई समझोता न हो पाने पर, बहुत वर्षों के बाद, कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए चुनाव लडा गया।
    सब समझते थे कि जब महात्मा गाँधी ने पट्टाभी सितारमैय्या का साथ दिया हैं, तब वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे। किन्तु वास्तव में, सुभाषबाबू को चुनाव में 1580 मत मिल गए और पट्टाभी सितारमैय्या को 1377 मत मिलें। गाँधीजी के विरोध के बाद भी सुभाषबाबू 203 मतों से यह चुनाव जीत गए।
    किन्तु चुनाव के निकाल के साथ बात समाप्त  नहीं हुई। गाँधीजी ने पट्टाभी सितारमैय्या की हार को अपनी हार बताकर, अपने साथीयों से कह दिया कि यदि वें सुभाषबाबू के नीतिओं से सहमत नहीं हैं, तो वें कांग्रेस से हट सकतें हैं। इसके बाद कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में से 12 सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू तटस्थ रहें और अकेले शरदबाबू सुभाषबाबू के साथ बनें रहें।
    1939 का वार्षिक कांग्रेस अधिवेशन त्रिपुरी में हुआ। इस अधिवेशन के समय सुभाषबाबू तेज ज्वर से इतने रुग्न पड गए थे, कि उन्हे स्ट्रेचर पर लेटकर अधिवेशन में आना पडा। गाँधीजी इस अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहे। गाँधीजी के साथीयों ने सुभाषबाबू से बिल्कुल सहकार्य नहीं दिया।
    अधिवेशन के बाद सुभाषबाबू ने समझोते के लिए बहुत कोशिश की। किन्तु गाँधीजी और उनके साथीयों ने उनकी एक न मानी। परिस्थिती ऐसी बन गयी कि सुभाषबाबू कुछ काम ही न कर पाए। अन्त में तंग आकर, 29 अप्रैल1939 को सुभाषबाबू ने कांग्रेस अध्यक्षपद से त्यागपत्र दे दिया।
     फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना
    3 मई1939 के दिन, सुभाषबाबू नें कांग्रेस के अंतर्गत फॉरवर्ड ब्लॉक के नाम से अपनी पार्टी की स्थापना की। कुछ दिन बाद, सुभाषबाबू को कांग्रेस से निकाला गया। बाद में फॉरवर्ड ब्लॉक अपने आप एक स्वतंत्र पार्टी बन गयी।
    द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से पहले से ही, फॉरवर्ड ब्लॉक ने स्वतंत्रता संग्राम अधिक तीव्र करने के लिए, जनजागृती शुरू की। इसलिए अंग्रेज सरकार ने सुभाषबाबू सहित फॉरवर्ड ब्लॉक के सभी मुख्य नेताओ को कैद कर दिया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सुभाषबाबू जेल में निष्क्रिय रहना नहीं चाहते थे। सरकार को उन्हे रिहा करने पर बाध्य करने के लिए सुभाषबाबू ने जेल में आमरण उपोषण शुरू कर दिया। तब सरकार ने उन्हे रिहा कर दिया। किन्तु अंग्रेज सरकार यह नहीं चाहती थी, कि सुभाषबाबू युद्ध काल में मुक्त रहें। इसलिए सरकार ने उन्हे उनके ही घर में नजरकैद कर के रखा।
     नजरकैद से पलायन
    नजरकैद से निकलने के लिए सुभाषबाबू ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी1941 को वे पुलिस को चकमा देने के लिये एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन का भेष धरकर, अपने घर से भाग निकले। शरदबाबू के बडे बेटे शिशिर ने उन्हे अपनी गाडी से कोलकाता से दूर, गोमोह तक पहुँचाया। गोमोह रेल्वे स्टेशन से फ्रंटियर मेल पकडकर वे पेशावर पहुँचे। पेशावर में उन्हे फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी भेंट, कीर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से कर दी। भगतराम तलवार के साथ में, सुभाषबाबू पेशावर से अफ़्ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल की ओर निकल पडे। इस सफर में भगतराम तलवार, रहमतखान नाम के पठान बने थे और सुभाषबाबू उनके गूंगे-बहरे चाचा बने थे। पहाडियों में पैदल चलते हुए उन्होने यह यात्रा कार्य पूरा किया।
    काबुल में सुभाषबाबू 2 माह तक उत्तमचंद मल्होत्रा नामक एक भारतीय व्यापारी के घर में रहे। वहाँ उन्होने पहले रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। इस में असफल रहने पर, उन्होने जर्मन और इटालियन दूतावासों में प्रवेश पाने का प्रयास किया। इटालियन दूतावास में उनका प्रयास सफल रहा। जर्मन और इटालियन दूतावासों ने उनकी सहायता की। अन्त में ओर्लांदो मात्सुता नामक इटालियन व्यक्ति बनकर, सुभाषबाबू काबुल से रेल्वे से निकलकर रूस की राजधानी मॉस्को होकर जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुँचे। 
    नाजी जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात
    बर्लिन में सुभाषबाबू सर्वप्रथम रिबेनट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओ से मिले। उन्होने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आजाद हिंद रेडिओ की स्थापना की। इसी बीच सुभाषबाबू, नेताजी नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाषबाबू के अच्छे दोस्त बन गए।
    अंतत: 29 मई1942 के दिन, सुभाषबाबू जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। किन्तु हिटलर को भारत के विषय में विशेष रूची नहीं थी। उन्होने सुभाषबाबू को सहायता का कोई स्पष्ट वचन नहीं दिया।
    कई वर्ष पूर्व हिटलर ने माईन काम्फ नामक अपना आत्मचरित्र लिखा था। इस पुस्तक में उन्होने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाषबाबू ने हिटलर से अपनी नाराजी व्यक्त की। हिटलर ने अपने किये पर क्षमा माँगी और माईन काम्फ की अगली आवृत्ती से वह परिच्छेद निकालने का वचन दिया।
    अंत में, सुभाषबाबू को पता चला कि हिटलर और जर्मनी से उन्हे कुछ और नहीं मिलने वाला हैं। इसलिए 8 मार्च1943 के दिन, जर्मनी के कील बंदर में, वे अपने साथी अबिद हसन सफरानी के साथ, एक जर्मन पनदुब्बी में बैठकर, पूर्व एशिया की तरफ निकल गए। यह जर्मन पनदुब्बी उन्हे हिंद महासागर में मादागास्कर के किनारे तक लेकर आई। वहाँ वे दोनो खूँखार समुद्र में से तैरकर जापानी पनदुब्बी तक पहुँच गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में, किसी भी दो देशों की नौसेनाओ की पनदुब्बीयों के बीच, नागरिको की यह एकमात्र बदली हुई थी। यह जापानी पनदुब्बी उन्हे इंडोनेशिया के पादांग बंदर तक लेकर आई।
     पूर्व एशिया में अभियान
    स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार
    पूर्व एशिया पहुँचकर सुभाषबाबू ने सर्वप्रथम, वयोवृद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के फरेर पार्क में रासबिहारी बोस ने भारतीय स्वतंत्रता परिषद का नेतृत्व सुभाषबाबू को सौंप दिया।
    जापान के प्रधानमंत्री जनरल हिदेकी तोजो ने, नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उन्हे सहकार्य करने का आश्वासन दिया। कई दिन पश्चात, नेताजी ने जापान की संसद डायट के सामने भाषण किया।
    21 अक्तूबर1943 के दिन, नेताजी ने सिंगापुर में अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद (स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) की स्थापना की। वे स्वयं इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री बने। इस सरकार को कुल 9 देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गए।
    आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकडे हुए भारतीय युद्धबंदियों को भर्ती किया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतो के लिए झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।
    पूर्व एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण करके वहाँ स्थायिक भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भरती होने का और उसे आर्थिक सहायता करने का आवाहन किया। उन्होने अपने आवाहन में संदेश दिया तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूँगा
    द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने चलो दिल्ली  का नारा दिया। दोनो फौजो ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिए। यह द्वीप अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद के अनुशासन में रहें। नेताजी ने इन द्वीपों का शहीद और स्वराज द्वीप  ऐसा नामकरण किया। दोनो फौजो ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। किन्तु बाद में अंग्रेजों का पलडा भारी पडा और दोनो फौजो को पिछे हटना पडा।
    जब आज़ाद हिन्द फौज पिछे हट रही थी, तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परंतु नेताजी ने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लडकियों के साथ सैकडो मिल चलते जाना पसंद किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श ही बनाकर रखा।
    6 जुलाई1944 को आजाद हिंद रेडिओ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधीजी से बात करते हुए, नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और अर्जी-हुकुमत-ए-आजाद-हिंद तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्येश्य के बारे में बताया।अपनी जंग के लिए उनका आशिर्वाद माँगा । ।
     लापता होना और मृत्यु की खबर
    द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूँढना आवश्यक था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था।
    18 अगस्त1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की तरफ जा रहे थे। इस यात्रा के बीच वे लापता हो गए। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
    23 अगस्त1945 को जापान की दोमेई खबर संस्था ने विश्व को सूचना दी, कि 18 अगस्त के दिन, नेताजी का हवाई जहाज ताइवान की भूमि पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था और उस दुर्घटना में बुरी तरह से घायल होकर नेताजी ने अस्पताल में अंतिम साँस ले ली थी।
    दुर्घटनाग्रस्त हवाई जहाज में नेताजी के साथ उनके सहकारी कर्नल हबिबूर रहमान थे। उन्होने नेताजी को बचाने का निश्च्हय किया, किन्तु वे सफल नहीं रहे। फिर नेताजी की अस्थियाँ जापान की राजधानी तोकियो में रेनकोजी नामक बौद्ध मंदिर में रखी गयी।
    स्वतंत्रता के पश्चात, भारत सरकार ने इस घटना की जाँच करने के लिए, 1956 और 1977 में 2 बार एक आयोग को नियुक्त किया। दोनो बार यह परिणाम निकला की नेताजी उस विमान दुर्घटना में ही मारे गये थे। किन्तु जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की सूचना थी, उस ताइवान देश की सरकार से तो, इन दोनो आयोगो ने बात ही नहीं की।
    1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिस में उन्होने कहा, कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई प्रमाण नहीं हैं। किन्तु भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
    18 अगस्त1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गए और उनका आगे क्या हुआ, यह भारत के इतिहास का सबसे बडा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं।
    देश के अलग-अलग भागों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे हुये हैं किन्तु इनमें से सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। छत्तीसगढ़ में तो सुभाष चंद्र बोस के होने को लेकर मामला राज्य सरकार तक गया। हालांकि राज्य सरकार ने इसे हस्तक्षेप योग्य नहीं मानते हुये मामले की फाइल बंद कर दी। 
    टिप्पणी
    • कोई भी व्यक्ति कष्ट और बलिदान के माध्यम असफल नहीं हो सकता, यदि वह पृथ्वी पर कोई चीज गंवाता भी है तो अमरत्व का वारिस बन कर काफी कुछ प्राप्त कर लेगा।...सुभाष चंद्र बोस
    • एक मामले में अंग्रेज बहुत भयभीत थे। सुभाषचंद्र बोस, जो उनके सबसे अधिक दृढ़ संकल्प और संसाधन वाले भारतीय शत्रु थे, ने कूच कर दिया था।...क्रिस्टॉफर बेली और टिम हार्पर 
    • सन्दर्भ

हमें यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए!.आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Monday, January 17, 2011

शिक्षा का माध्यम : अंग्रेजी या मातृभाषा ----------------------------------------------- विश्वमोहन तिवारी . एयर वाइस मार्शल . से .नि .

हमें यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए!.आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

जब विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी पश्चिम से आई हैं, और हमारी भाषाओं ने विप्रौद्योगिकी के विकास में कार्य नहीं किया तब हम अपनी भाषा में विज्ञान कैसे सीख सकते हैंॐ उसे तो अंग्रेजी के द्वारा ही सीखना पड़ेगा।इस पर थोड़ा गहराई से विचार करें।

शिक्षा के माध्यम के विषय में आम आदमी की क्या सोच है ? आम आदमी कहता है कि शिक्षा का माध्यम वह हो जिसमें अच्छी शिक्षा मिले, जो जीवन में काम आएऌ और हम देख ही रहे हैं कि अंग्रेजी माध्यम वाले कॉन्वैन्ट और पब्लिक स्कूलों में ही अच्छी पढ़ाई हो रही है।बिना अंग्रेजी के कोई भी अच्छी नौकरी नहीं मिलती। इसलिये एक तरफ, हम तो मजबूर हैं।फिर दूसरी तरफ, अंग्रेजी तो अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, कम्प्यूटर की भाषा है, विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तो हिन्दी में पुस्तकें ही नहीं हैं।और ऐसे में कुछ सिरफिरे आदर्शवादी लोग ही हैं जो जीवन मूल्यों की दुहाई देते हुए मातृभाषा को अपनाने की बात करते हैं ॐ वह आगे कहता है कि आखिर हमें स्वयं को जीवन मूल्य सिखाना ही पड़ते हैं, चाहे जिस भाषा में सीख लें।आखिर भाषा विचारों के आदान प्रदान का माध्यम ही तो है ! पाश्चात्य सभ्यता आज विकास के चरम शिखर पर है, क्यों न हम उनकी भाषा से उनके सफलता की कुंजी वाले जीवन मूल्य ले लें!!

प््रामुख बात तो यह कि जनतंत्र में जनता की यह मजबूरी कैसी ॐ क्या जनतंत्र काम नहीं कर रहा है ? जब एक विदेशी भाषा में राजकाज हो तब जनता का राज्य तो हो ही नहीं सकताÊ क्योंकि उसे तो पता ही नहीं कि संसद में या सरकारी दफ्तरों में क्या हो रहा है।अतः भाषा संबन्धी सरकारी नीति को, सरकारी स्कूलों को सुधारना अत्यावश्यक है, अपने अधिकारों के लिये आन्दोलन की आवश्यकता है।आन्दोलन करने के लिये भ्रमों का निवारण भी जरूरी है, और अंग्रेजी माध्यम से होने वाले खतरे से सावधान करना भी। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या हो? तैत्तिरीय उपनिषद तथा अन्य शास्त्रों में शिक्षा का प्रथम उद्देश्य शिशु को मानव बनाना है, दूसरा, उसे उत्तम नागरिक़ तथा तीसरे, परिवार का पालन पोषण करने योग्य और साथ ही सुख की प्राप्ति कराना। हमारी संस्कृति में तो जीवन के चार पुरुषार्थ , धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के आधार में यह उद्देश्य हैं।क्या प्रचलित शिक्षा के उद्देश्य यह हैं? एक तरफ व्यवसाय या नौकरी ही शिक्षा का उद्देश्य रह गया है , और दूसरी तरफ शिक्षा जैसे पुण्य कार्य का घोर व्यवसायी करण या बाजारीकरण हो रहा है।

अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा से हमें पाश्चात्य जीवन मूल्य और भोगवादी सभ्यता ही मिलेगी क्योंकि भाषा अपने साथ अपनी संस्कृति लाती है।और हमारा दुर्भाग्य कि अंग्रेजी भक्त यही चाहते हैं।भोगवादियों की सफलता आप उनके भोग के संसाधनों से ही तो नाप रहे हैं सुख से तो नहीं! भोगवादी सभ्यता में परिवार तथा समाज विखंडित हो रहा हैऌ नारी स्वयं बाजारू हो रही है। दूरदर्शन इत्यादि माध्यम इस भोगवाद की अग्नि को भड़का रहे हैं।पाश्चात्य संस्कृति की गुलामी सुख नहीं, सुख का भ्रम देती है।भारतीय संस्कृति सच्चा सुख दे सकती है क्योंकि उसमें त्याग­पूर्वक भोग का मंत्र है जो हम खो रहे हैं क्योंकि अपनी संस्कृति की वाहन अपनी मातृभाषा को भूल रहे हैं। नैतिक मूल्य संस्कृति से आते हैं, इसलिये हम भारतीय जीवन मूल्यों को भूल रहे हैं, और घोर अमानवीयता भुगत रहे हैं। ‘स्टॉक होम सिन्ड्रोम’ के अनुसार गुलामियत की पराकाष्ठा वह है जब गुलाम स्वयं कहने लगे कि वह गुलाम नहीं है, जो कुछ भी वह है अपनी स्वेच्छा से है। ब्राउन साहब कहते हैं कि अंग्रेजी के बिना तो हम अंधकार युग में रहते।हमें अंग्रेजी चाहिये।यह तो ठीक है कि यदि अंग्रेजी ने फारसी को न हटाया होता तब हम भी अन्य मुस्लिम देशों की तरह आधुनिकता से वंचित रहतेÊ और साथ ही मानसिक तथा भौतिक रूप से उनसे अधिक दरिद्र रहतेÊ क्योंकि हमारे पास तो आवश्यक मात्रा में तेल भी नहीं है।अतएव 1947 तक तो अंग्रेजी ठीक ही थीÊ किन्तु उसके बाद हमें भारतीय भाषाओं को ही अपनाना था क्योंकि हमारी समृद्ध भाषाओं में विज्ञान­ संप्रेषण करने की भी आवश्यक शक्ति है।पहले तो कॉन्वैन्टी स्कूलों में ही भारतीय भाषाओं काÊ प्रच्छन्न रूप से तिरस्कार होता ही था, अब तो पब्लिक स्कूलों में भी मातृभाषाओं का तिरस्कार डंके की चोट पर होता है, भारतीय संस्कृति का तिरस्कार होता है।यह कैसा भारतवर्ष हैॐॐ

वैश्वीकरण के कारण अंग्रेजी का प्रभुत्व बढ़ा है और प्रवासियों का बड़ी संख्या में विदेशों में निवास भी। इस के शिक्षा पर हो रहे परिणामों पर जो शोध कैनैडा में हुए हैं वे उपयोगी हैं, यद्यपि उनकी समस्या हमारी समस्या से उलट है।टौरॉन्टो शहर के किन्डरगार्टन में पढ़ रहे विद्याार्थियों में 58 त् बच्चे ऐसे देशों से आए हैं जहां की आम भाषा अंग्रेजी नहीं है।वहां .अर्थात कैनैडा के फाशिस्ट लोग प्रवासियों को देश से ही निकालना चाहते हैं।और कुछ उन्हें मुख्यधारा में समाहित करने के लिये प्रवासी विद्याथियों को मात्र अंग्रेजी में ही शिक्षा देते हैं।

इस समस्या पर डा . कमिन्सÊ बेकर तथा स्कुटनाबकंगस ने अनुसंधान कियाऌ उन्होने जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे महत्वपूर्ण हैं :

1 . अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के तहत बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा न देना मानवाधिकारों का हनन है।

2 . द्विभाषी बच्चों की मातृभाषा उनके समग्र विकास तथा शैक्षिक विकास के लिये अत्यंत महत्वपूर्ण है।

3 . जब बच्चे दोनों भाषाओं में विकास करते रहते हैं, उन्हें भाषाओं तथा उनके उपयोग की गहरी समझ हो जाती है।

4 . द्विभाषी बच्चों की विचार पद्धति अधिक नमनीय हो सकती है, तथा उनके भाषाओं के उपयोग की समझ गहरी हो जाती है।

5 . जो बच्चे अपनी मातृभाषा में ठोस आधार लेकर आते हैं, वे शाला की भाषा में बेहतर योग्यता प्राप्त करते हैं।बच्चों के माता पिता, दादा दादी, नाना नानी आदि बच्चों से संवाद करते हैं, कहानियां सुनाते हैं, तब बच्चे अधिक सफलतापूर्वक अन्य भाषा तथा शिक्षा ग्रहण करते हैं।क्योंकि जो भी बच्चों ने घर में सीखा है वह ज्ञान, वे अवधारणाएं तथा कौशल अन्य भाषा में सरलतापूर्वक आ जाते हैंैं। यदि बच्चों ने घर में घड़ी देखना सीख लिया है तब उन्होने समय बतलाना और समझना भी सीख लिया है, अतएव उसे अन्य भाषा में वह अवधारणा सीखने में बहुत कम समय लगेगा।इसी तरह बच्चे जो भीे शाला की भाषा में सीखते हैं वह मातृभाषा मैं तैर जाता है, बशत्र्ते कि मातृभाषा का तिरस्कार न किया गया हो।अर्थात मातृभाषा के उपयोग को शाला में रोकना बच्चे के विकास में सहायक नहीं होता, वरन अवरुद्ध करता है।जब शाला में उन्हें मातृभाषा में भी प्रभावी शिक्षा दी जाती है तब द्विभाषी बच्चे शाला में बेहतर शिक्षा प्राप्त करते हैं इसके विलोम स्वरूप, जब शाला में बच्चों की मातृभाषा का तिरस्कार होता है तब उनका विकास अवरुद्ध होता है, और उनकी व्यक्तिगत शिक्षा की तथा शिक्षण हेतु अत्यावश्यक अवधारणाओं की आधारशिला कमजोर होती है।

6 . शाला में किसी भी बच्चे की मातृभाषा को ठुकराना, उस बच्चे को ठुकराना है ॐ जब बच्चे को यह संदेश दिया जाता है कि वह अपनी भाषा और उसके साथ अपनी संस्कृति शाला के बाहर छोड़कर आए तब वे अपनी अस्मिता का अपने संस्कारों का कुछ हिस्सा भी बाहर छोड़ आते हैं।यह भी पर्याप्त नहीं है कि शिक्षक बच्चे की भाषा को निष्क्रिय रूप से स्वीकारें, वरन उन्हें विभिन्न विधियों द्वारा उनकी भाषा की पुष्टि ही करना चाहिये, तथा सामान्य तौर पर ऐसा शैक्षिक वातावरण तैय्यार करना चाहिये कि पूर्ण बालक का भाषाई तथा सांस्कृतिक अनुभव स्वीकार्य है।शाला के अधिकारियों तथा शिक्षकों को यह समझना आवश्यक है कि घर में प्राप्त बच्चे के भाषाई तथा सांस्कृतिक अनुभव वे महत्वपूर्ण आधार हैं जिन पर भविष्य की शिक्षा के स्तम्भ का निर्माण होना है।

इसमें संदेह नहीं कि शिक्षा का पूरा लाभ लेने के लिये मातृभाषा में शिक्षा का दिया जाना तथा मातृभाषा का सम्मान करना नितांत आवश्यक है।विदेश में हमारी भाषा का सम्मान हो रहा है और हम इतने गुलाम कि अपने देश में अपनी मातृभषा का तिरस्कार कर रहे हैं, और बच्चों का और देश का भविष्य खराब कर रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि हमें विदेशी भाषाएं नहीं सीखना चाहिये, अवश्य सीखना चाहिये। हम अंग्रेजी को एक समुÙत उपयोगी विदेशी भाषा की तरह सीखें।भारत में जो शिक्षा प्राथमिक स्तर से, और महानगरों में तो नर्सरी से, अंग्रेजी माध्यम में दी जा रही है वह भारत के लिये धीमे जहर के समान है। नर्सरी या पहली कक्षा से ही अंग्रेजी शुरु करने पर अंग्रेजी सीखने में न केवल अधिक कठिनाई होगीÊ वरन उस भाषा का सीखना रटंत विद्या के समान होगा और वह ज्ञान उसके हृदय में प्रवेश नहीं कर सकेगा।असली भाषा अर्थात हृदय तक पहुँचने वाली भाषा जीवन जीने वाली भाषा से आती हैÊ जो उसकी मातृभाषा है या उसके क्षेत्र की भाषा है। क्योंकि बच्चा मातृभाषा में सीखे ज्ञान तथा कौशल को अन्य भाषा में सरलता से ढाल लेता है, अतएव अंग्रेजी की शिक्षा को मातृभाषा की शिक्षा से चार कदम पीछे रहना चाहिये। शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिये। अंग्रेजी भाषा का शिक्षण माध्यमिक स्तर से प्रारंभ करना चाहिये। कुछ विद्यार्थियों को शिक्षा अंग्रेजी माध्यम में दी जा सकती है जोकि बारहवीं कक्षा के बाद ही प्रारंभ करना चाहिये ताकि मातृभाषा की पर्याप्त निर्मिति तथा संस्कृति मस्तिष्क तथा हृदय में समुचित रूप से बैठ जाए।

भविष्य उसी का है जो विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त रहेगा, शेष देश मात्र खुले बाजार होंगे ! विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में सशक्त होने के लिये उत्कृष्ट अनुसंधान तथा शोध आवश्यक हैं, जिसके लिये विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के ज्ञान पर अधिकार, तथा कल्पनाशीलता तथा सृजनशीलता आवश्यक हैं। कल्पना तथा सृजन हृदय के वे संवेदनशील तथा अंतर्प्रज्ञा ह्यएम्ेतेिनल् ान्द न्तिुतेिन्हृ गुण हैं जो बचपन के अनुभवों से मातृभाषा के साथ तथा गहरे ज्ञान अर्थात मात्र याद किया हुआ नहीं वरन आत्मसात किये ज्ञान के साथ आते हैं, और जिस भाषा में जीवन जिया जाता ह,ै उसी भाषा में वे प्रस्फुटित होते हैंऌ अतएव उसी भाषा में आविष्कार आदि हो सकते हैं। इसलिये नौकरी के लिये अंग्रेजी में विज्ञान पढ़ने वाले से विशेष आविष्कारों तथा खोजों की आशा नहीं की जा सकती, आखिर इज़राएल जो कि हमारे देश का दसवां हिस्सा भी नहीं है, विज्ञान में हमसे दस गुने नोबेल पुरस्कार ले जाता है।वह भी तब कि जब यहूदी भाषा 1948 के पहले किसी भी देश की भाषा नहीं थी !

यदि हम चाहते हैं कि इस देश का और हमारे बच्चों का इस देश में, तथा में विश्व में सम्मान बढ़े तब हमें, अपने बच्चों को विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में ही देना है।यह भी एक भ्रम है कि भारतीय भाषाओं में विज्ञान की शिक्षा नहीं दी जा सकती।इस समय हिन्दी में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के 5 लाख से अधिक शब्द बन चुके हैं, और बनते जा रहे हैं।संस्कृत जैसी विश्व में समृद्धतम भाषा की पुत्रियों को और तमिल को भी वैज्ञानिक शब्दाावली की कोई कठिनाई नहीं हो सकती।बस राजनैतिक तथा ‘ब्यूरोक्रैटिक’ इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। अब हिन्दी में केन्द्रीय सेवाओं आदि की परीक्षाएं दी जा सकती हैं।यह भी एक भम है कि अंग्रेजी गई तो देश विखंडित हो जाएगा।भारतीय संस्कृति इस देश को एकता प्रदान करती है, सभी भारतीय भाषाओं में वही संस्कृति है।एक भारतीय भाषा के जानने वाले को अन्य भारतीय भाषा सीखने में विदेशी भाषाओं को सीखने की अपेक्षा कहीं अधिक सरलता होगी।भाषाओं के सीखने के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है। प्रत्येक व्यक्ति की योग्यताएं भिन्न क्षेत्रों में भिन्न होती हैंÊ कोई गणित सरलता पूर्वक सीख लेता है तो कोई भाषाÊ और कोई विज्ञानÊ तो कोई कलाÊ बस मातृभाषा का ज्ञान ही आवश्यक होता है।अंग्रेजी को अेिनवार्य­ सा बना देने से वह बालक जो विदेशी भाषा सीखने में निपुण नहीं है किन्तु गणित या विज्ञान या कला या अर्थशास्त्र या इतिहास आदि सीखने में निपुण हो सकता हैÊ उसकी शिक्षा अंग्रेजी में कमजोर होने से अधूरी सी रह जाएगी !

वैसे भी यदि बच्चे में कल्पना शीलता तथा सृजन शक्ति है तब वह न केवल अच्छी अंग्रेजी सीख लेगा वरन जीवन में अवश्य कुछ ऐसा भी करेगा जिससे हमें गर्व महसूस होगाÊ और हमारे साथ हमारा समाज भी सुखी होगा! इस कथन की पुष्टि का सबसे अच्छा उदाहरण तो सुभाष चंद्र बोस का है।उनके पिता ने उन्हें अंग्रेजी माध्यम की शाला में भरती करवाया था।कुछ ही दिनों में सुभाष ने स्वयं ही अपना प्रवेश बांग्ला भाषा के माध्यम वाली शाला में करवा लिया। यह बांग्ला भाषा में शिक्षित सुभाष न केवल आई सी एस की परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ वरन एक अनोखा क्रान्तिकारी भी बना। और मानव तभी श्रेष्ठ बन सकता है जब वह अपनी संस्कृति तथा भाषा में जीवन जीता है। मातृभाषा तथा भारतीय संस्कृति ही हमें सुखी मानव बना सकती है।

Saturday, September 11, 2010

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु

आत्मग्लानी नहीं स्वगौरव का भाव जगाएं, विश्वगुरु  मैकाले व वामपंथियों से प्रभावित कुशिक्षा से पीड़ित समाज का एक वर्ग, जिसे देश की श्रेष्ठ संस्कृति, आदर्श, मान्यताएं, परम्पराएँ, संस्कारों का ज्ञान नहीं है अथवा स्वीकारने की नहीं नकारने की शिक्षा में पाले होने से असहजता का अनुभव होता है! उनकी हर बात आत्मग्लानी की ही होती है! स्वगौरव की बात को काटना उनकी प्रवृति बन चुकी है! उनका विकास स्वार्थ परक भौतिक विकास है, समाज शक्ति का उसमें कोई स्थान नहीं है! देश की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्परा व स्वगौरव की बात उन्हें समझ नहीं आती! 
 किसी सुन्दर चित्र पर कोई गन्दगी या कीचड़ के छींटे पड़ जाएँ तो उस चित्र का क्या दोष? हमारी सभ्यता  "विश्व के मानव ही नहीं चर अचर से,प्रकृति व सृष्टि के कण कण से प्यार " सिखाती है..असभ्यता के प्रदुषण से प्रदूषित हो गई है, शोधित होने के बाद फिर चमकेगी, किन्तु हमारे दुष्ट स्वार्थी नेता उसे और प्रदूषित करने में लगे हैं, देश को बेचा जा रहा है, घोर संकट की घडी है, आत्मग्लानी का भाव हमे इस संकट से उबरने नहीं देगा. मैकाले व वामपंथियों ने इस देश को आत्मग्लानी ही दी है, हम उसका अनुसरण नहीं निराकरण करें, देश सुधार की पहली शर्त यही है, देश भक्ति भी यही है !
भारत जब विश्वगुरु की शक्ति जागृत करेगा, विश्व का कल्याण हो जायेगा !

हमें यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए!
.आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक

Monday, May 17, 2010

युगदर्पण हमें यह मैकाले की नहीं, विश्वगुरु की शिक्षा चाहिए!.आओ मिलकर इसे बनायें- तिलक